Posts

Showing posts from January, 2019

इस टीवी सीरियल के कारण लग जाता था भारत में कर्फ्यू

Image
रामानंद सागर वो नाम है जो भारत के हर रहिवासी के जुबान पर है. रामायण जैसा इतिहासिक सीरियल बनाकर वो आज भी लोगों के दिलों में राज करते है. रामानंद सागार का जन्म 29 दिसंबर 1917 पाकिस्तान के लाहौर में हुआ था. उनका असली नाम चंद्रमौली चोपड़ा था.  बंटवारे के बाद उनका परिवार भारत में ही बस गया. जिसके बाद मुंबई पहुंचकर उन्होंने बतौर राइटर अपने करियर की शुरुआत की. उन्होंने कहानी और और स्क्रीनप्ले लिखने की भी शुरुआत की. जिसके बाद 1950 में सागर आर्ट कॉरपोरेशन नाम से एक प्रोडक्शन कंपनी शुरू की. इस बैनर तले 25 जनवरी 1987 को रामायण का पहला एपिसोड प्रसारित हुआ.  इस सीरियल ने आते ही भारत में तहलका मचा दिया. देश के हर घर में सिर्फ इस सीरियल की चर्चा थी. रामायण सीरियल 31 जुलाई 1988 तक चलता रहा. दूरदर्शन चैनल पर ये सीरियल रविवार सुबह 45 मिनट तक आता था जबकि उस दौर में बाकी अन्य सीरियल को 30 मिनट का ही टाइम स्लॉट अलॉटेड था. उस वक़्त का नज़ारा ऐसा था की जब 45 मिनट वाला ये सीरियल टीवी चैनल्स पर प्रसारित होता था तोह देश के हर सड़कों और गलियों में मानो कर्फ्यू जैसा सन्नाटा  हो गया हो. आज के द...

इतना सन्नाटा क्यों है भाई

Image
इतना सन्नाटा क्यों है भाई  अवतार किशन हंगल हिन्दी फिल्मों के प्रसिद्ध अभिनेता एवं दूरदर्शन कलाकार थे। 1966 से हिन्दी फिल्म उद्योग का हिस्सा रहे हंगल ने लगभग 225 फिल्मों में काम किया। उन्हें फिल्म परिचय और शोले में अपनी यादगार भूमिकाओं के लिए जाना जाता है।  स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाले ए.के. हंगल का जन्म 1 फरवरी 1917 को कश्मीरी पंडित परिवार में  पंजाब के सियालकोट में हुआ था। इनका पूरा नाम अवतार किशन हंगल था। कश्मीरी भाषा में हिरन को हंगल कहते हैं। उन्होंने हिंदी सिनेमा में कई यादगार रोल अदा किए।  1966 में उन्होंने हिंदी सिनेमा में कदम रखा और 2005 तक 225 फिल्मों में काम किया। राजेश खन्ना के साथ उन्होंने 16 फिल्में की थी। हंगल साहब उर्दू भाषी थे। उन्हें हिंदी में स्क्रिप्ट पढ़ने में परेशानी होती थी। इसलिए वे स्क्रिप्ट हमेशा उर्दू भाषा में ही मांगते थे। कश्मीरी ब्राह्मणों का यह परिवार बहुत पहले लखनऊ में बस गया था। लेकिन हंगल साहब के जन्म के डेढ़-दो सौ साल पहले वे लोग पेशावर चले गये थे। इनके दादा के एक भाई थे जस्टिस ...
Image
क्या हुआ था जब गुस्से से कांपते देवानंद ने सुरैया को मार दिया था थप्पड़ !   9 साल की उम्र में उन्होंने फिल्मों के लिये गीत गाना शुरू कर दिया। 14 साल की उम्र में वे अभिनेत्री बन गयी और 17 की होते होते उनका क्रेज़ पूरे देश में सिर चढ़ कर बोलने लगा। ये किस्सा है अभिनेत्री सुरैया का। उनके चाहने वालों की उनके घर के सामने ऐसी भीड़ जमा होती थी की व्यवस्था बनाए रखने के लिये पुलिस को खास कदम उठाने पड़ते थे। सब कुछ ठीक चल रहा था कि अचानक सुरैया के जीवन में देवानन्द ने प्रवेश किया। सुरैया और देवानन्द की पहली फ़िल्म “विद्या” थी। विद्या की शूटिंग के दौरान नदी में तैरती नाव पर देवानन्द और सुरैया पर एक गीत फ़िल्माया जाना था। देव और सुरैया नाव में बैठे। लांग शॉट लिया जाना था इसलिये यूनिट के लोग सुरैया और देव की नाव से दूर दूसरी नावों में बैठे थे। पता नहीं क्या हुया कि अचानक देव और सुरैया की नाव पलट गयी। नदी अधिक गहरी नहीं थी लेकिन सुरैया को बिल्कुल तैरना नहीं आता था। देवानन्द ने अपनी परवाह किये बिना बुरी तरह घबराई और डरी हई सुरैया को बचा लिया। बिल्कुल फिल्मी कहानी की तरह सुरैया के मन...
Image
   किसान कन्या पहली रंगीन फिल्म Kisan Kanya First Colored Movie Review In Hindi भारत कि पहली रंगीन फिल्म | क्या दौर था वो जब फिल्मे मनोरंजन का एक मात्र साधन थी और ब्लैक एंड वाइट फिल्मे भी चाव से देखी जाती थी जिसके बाद Kisan Kanya first Colored Film सीनेमा घरो में आई | Kisan Kanya First Colored Movie In Hindi रंगों का जीवन में क्या महत्व है ये वही जान सकता है जिसके पास रंग ना हो ना उसे use करने का हक हो| रंगों का महत्व जानना है तो एक विधवा से पूछो, एक अंधे आदमी से पूछो जिसने कभी जाना ही नहीं color होता कैसा है| फिल्मों में भी रंगों का बहुत महत्व है| 1913 में जब Dada saheb phalke जी ने पहली फीचर film Raja Harish chandra बनाई थी वह Black and white film थी| बहुत अजीब हुआ करता था उस समय बिना रंगों के film देखने का| 1937 में Ardeshir Irani जी आए और उन्होंने इस बेजान सी लगती Indian film में रंग डाल कर एक अजूबा कर दिखाया| Ardeshir Irani द्वारा produce एवं Moti B. Gidvani  द्वारा direct film Kisan Kanya 1937 में आई| Film में color डालने का विचार Ardeshir Irani जी के...
Image
Image
कितना रंगीन है ये चाँद सितारों का समां, आप तकते ही नहीं आपकी आदत क्या है-पिकनिक (अप्रदर्शित) / फ़िल्म ही फ़िल्म (1983) गीत – कितना रंगीन है ये चाँद सितारों का समां आप तकते ही नहीं आपकी आदत क्या है फ़िल्म – पिकनिक (अप्रदर्शित)/फ़िल्म ही फ़िल्म (1983) संगीतकार – एन दत्ता गीतकार – मजरूह सुल्तानपुरी गायक – आशा भोंसले, मोहम्मद रफी भारत की पहली सिनेमास्कोप फ़िल्म ‘काग़ज़ के फूल’ के रूप में गुरुदत्त ने विशाल कैनवास पर एक सपना गढ़ा था जो बाॅक्स आॅफिस की खिड़की पर लड़खड़ा कर टूट गया। अपनी इस असफलता पर गुरुदत्त घनघोर निराश हो गये। इस फ़िल्म के बाद उन्होंने किसी और फ़िल्म का निर्देशन नहीं किया। गुरुदत्त फ़िल्म्स की बाद की फ़िल्मों के निर्देशन उन्होंने दूसरे निर्देशकों से करवाये। ‘साहब बीवी और ग़ुलाम‘ – अबरार अलवी, ‘चौदहवीं का चाँद‘- मोहम्मद सादिक़ और ‘बहारें फिर भी आयेंगी‘ – शाहिद लतीफ़ के द्वारा निर्देशित फ़िल्में हैं। निर्देशन में असफलता उन्हें पहले भी मिली थी पर वे निराश नहीं हुये थे। ‘सैलाब‘ (1956) उनकी एक सुपर फ्लाप फ़िल्म थी। इस फ़िल्म के प्रोड्यूसर गीतादत्त के भाई मुक...
Image
‘मौसी’ जी” लीला मिश्रा हिन्दी सिनेमा की माँ सी अमर ‘मौसी’ जी! ‘शोले’ में धर्मेन्द्र पानी की टंकी पर चढकर जिन को जेल में ‘चक्की पीसींग एन्ड पीसींग एन्ड पीसींग’ कराने की धमकी देते हैं, उन ‘मौसी’ लीला मिश्रा को कौन भूल सकता है? लीला जी को फ़िल्मों में कितने सारे रोल में हमने देखा था। कभी वे ‘राम और श्याम’ में दिलीपकुमार (राम) की मां बनीं थीं तो कभी वे ‘दासी’ में मौसमी चेटर्जी की ‘मामी’ थी। मगर ‘शोले’ की ‘मौसी’ ने उन्हें जो सफलता और लोकप्रियता दी, उसका कोई जोड नहीं। हालांकि लीला मिश्रा को पर्दे पर अपना काम देखने के लिए सिनेमाघर जाना भी पसंद नहीं था। उन्होंने अपने ‘पवित्र बनारस’ वाले अभिगम को मुंबई में भी बरकरार रखा था और फ़िल्में नहीं देखतीं थीं…. यहाँ तक की ‘शोले’ और सत्यजीत राय की ‘शतरंज के खिलाडी’ भी नहीं!    लीला मिश्रा जी के लिए फ़िल्मों में अभिनय करना नौकरी करने जैसा था। उसके साथ जुडे ग्लैमर से वे अछूती रही थी। 1987 में ‘माधुरी’ में इसाक मुजावर की लिखी उनकी जीवन-कथा के अंशों से पता चलता है कि लील...
Image
 लैला के मजनूं  के ऋषि कपूर      (  बॉबी   )    स्कूल की पढ़ाई पूरी करके लौटे बेटे राज के लिए मां-बाप ने सरप्राइज़ बर्थ दे पार्टी रखी है। दरवाज़े पर खड़ी सकुचाती सी कमसिन एक लड़की को देखता है तो देखता रह जाता है। पास ही रैक से डायरी सी उठाता है और उसमें से पढ़ने-गाने लगता है - ‘ मैं शायर तो नहीँ मगर ऐ हसीं जब से देखा मैंने तुझको मुझको शायरी आ गई। ’  उस कमसिन के साथ खड़ी थी राज की पुरानी आया। अगली सुबह वह रात मिले उपहार देख रहा था। एक है उस आया का नाचीज़ सा तोहफ़ा- केक जो बूढ़ी आया बनाया करती थी। वह अपने को रोक नहीँ पाता। मछुआरों की बस्ती में आया के घर पहुंच जाता है। दरवाज़े पर मिलती है वही लड़की, हाथ आटे से सने हैं। वह देखता रह जाता है... अगर बॉबी को देखकर राज शायर बन गया था, तो बॉबी भी पीछे नहीँ है। कश्मीर के एक बंद कमरे में वह राज की आंखों की भूलभुलैया में खो जाती है, और शेर से सामना होने पर यह कहने की हिम्मत रखती है,  “ तुम्हें छोड़ दे मुझे खा जाए !” उन दोनों की उम्र का यह  ‘ एक साल जो बचपन और जवानी के बीच ...
Image
  तुमसा नहीं देखा (1957) गीत – यूँ तो हमने लाख हसीं देखे हैं , तुमसा नहीं देखा  फ़िल्म – तुमसा नहीं देखा (1957)  संगीतकार – ओ पी नय्यर  गीतकार – साहिर लुधियानवी  गायक – मोहम्मद रफ़ी / आशा भोंसले अक्षय मनवानी  ने निर्माता निर्देशक  नासिर हुसैन  की फ़िल्मों का गहन विश्लेषण करती हुई एक किताब लिखी है। उनका विचार है कि मुख्य धारा की फ़ार्मूला या मसाला फ़िल्मों को समालोचक और तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग सदा हेय दृष्टि से देखते हैं। जब कि लम्बे समय तक सिनेमा का मतलब ही मनोरंजक मसाला फ़िल्में होती थीं। दर्शकों का एक बड़ा वर्ग इन फ़िल्मों का दीवाना था। इस क़िस्म की हिट फ़िल्में बनाने वालों में नासिर हुसैन का नाम प्रमुखता से उभर कर सामने आता था। निर्देशक बनने से पहले नासिर हुसैन लेखक के रूप में अपनी पहचान क़ायम कर चुके थे। वे फ़िल्मिस्तान से जुड़े थे।  अनारकली (1953)  की कहानी,  मुनीम जी (1955)  और   पेइंग गेस्ट (1957)  के स्क्रीनप्ले और संवाद वे लिख चुके थे । उसके बाद उन्हें फ़िल्मिस्तान से पहली फ़िल्म ‘ तुमस...
Image
"दो आँखे बारह हाथ" पहली बॉलीवुड फिल्म थी जिसे गोल्डन ग्लोब अवार्ड मिला  भारत में जहाँ एक ओर आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी वहीँ दूसरी ओर इंडियन फिल्म इंडस्ट्री भी एक नए दौर से गुजर रहा था. उस वक़्त एक ऐसे निर्देशक थे जिन्होंने हिंदी सिनेमा को नयी पहचान दिलाई. ऐसी ही महान निर्देशक, निर्माता और एक्टर का नाम हैं वी. शांताराम. उनकी सबसे बहुचर्चित फिल्म का नाम है 'दो आंखें बारह हाथ' जो की जो 1957 में प्रदर्शित हुई. ये फिल्म एक ऐसी जेलर की कहानी है जिसने 6 कैदियों को अलग अलग तरीके से सुधारता है. ये फिल्म जानी जाती है अपनी अलग कहानी, अलग पृष्ठ्भूमि जिसके चलते यह आज भी लोगोंकी सबसे पसंदीदा फिल्म बानी हुई है. 'दो आंखें बारह हाथ' पहली ऐसी बॉलीवुड फिल्म थी जिसे गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड मिला था. रोचक बात तोह यह है की शाहरुख खान ने अपने बेटे आर्यन को एक्टिंग सीखने के लिए भी यही फिल्म देखने को कहा था.इस फिल्म को कई अन्य अवार्ड्स से नवाजा गया है. इस फिल्म को राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक सम्मान दिया गया था. इसी के साथ ही इसने बर्लिन फिल्म महोत्सव में सिल्वर बियर सहित कई और ...
Image
         Remembering Jani Babu Syed Jan Muhammad, who acquired fame as Jani Babu, was born in 1935 in the town of Hingan Ghat near Nagpur. He started his singing career at the young age of ten when he participated in a school qawwali competition. Around 1955 he started getting recognized after his  “Damadam Mast Qalandar”  became an instant hit with the public. His numerous audio records were produced by HMV, T-Series and Venus. Collections which became extremely popular include: “Muhammad Ke Ghulamoon Par Budhapa Aa Nahin Sakta,” Jannati Jahaz,” “Dhoka Huwi Gawa,” Woh Aik Bholi Si Ladki Hai,” and “Asaar-e-Qayamat Hain.” Babu’s contemporaries include such famous artists of the Qawwali genre as Ismael Azad, Yusuf Azad, Aziz Nazaan, and Majid Shola. He also sang for a number of bollywood films which include Noor Mahal ( Mehboob Na Ja Aaj Ki Raat) and Awliya-e-Islam. His  “Mehngai maar gayi”  from  Ro...
Image
  'ये हाथ नहीं, फांसी का फंदा है' ... जैसे चंद डायलॉग्स सुनते ही जिस अभिनेता की शक़्ल जेहन में ताज़ा हो उठती है, उसका नाम है संजीव कुमार। अपनी बेहतरीन अदाकारी के लिए जाने जाने वाले संजीव का असली नाम हरिहर जरीवाला था, बाद में हरिभाई बन गया। ~ इस उम्दा कलाकार के बारे में आइए जानते हैं कुछ ख़ास बातें~    हरिभाई यानी संजीव कुमार का जन्म 9 जुलाई 1938 में मुंबई में हुआ था, लेकिन बचपन गुजरात में गुजरा। 6 नवंबर 1985 में दिल का दौरा पड़ा और वे 47 साल की उम्र में ही फानी दुनिया को अलविदा कह गए। ➡️डेब्यू यूं तो संजीव ने पर्दे पर पर्दापण साल 1965 में किया, लेकिन अपनी कला को मांझने का कार्य, तो वे बपचप से ही शुरू कर चुके थे। सबसे पहले वे रंगमंच से जुड़े और अपना नाम बनाया। इसके बाद फिल्मालय के एक्टिंग स्कूल में दाखिला लेकर और बारीकियां सीखीं। इनकी पहली फिल्म 'निशान' थी। इसने संजीव को एक विशिष्ट स्थान दिलवाया। यहां तक ​​कि जब इनकी मृत्यु हुई, तब तक इन्होंने दस फिल्मों की शूटिंग तक पूरी कर ली थी। इनकी अखिरी फिल्म 'प्रोफ़ेसर की पड़ोसन' रही। यह फिल्म इनकी मृत...