लैला के मजनूं के ऋषि कपूर
( बॉबी )
स्कूल की पढ़ाई पूरी करके लौटे बेटे राज के लिए मां-बाप ने सरप्राइज़ बर्थ दे पार्टी रखी है। दरवाज़े पर खड़ी सकुचाती सी कमसिन एक लड़की को देखता है तो देखता रह जाता है। पास ही रैक से डायरी सी उठाता है और उसमें से पढ़ने-गाने लगता है -‘मैं शायर तो नहीँ मगर ऐ हसीं जब से देखा मैंने तुझको मुझको शायरी आ गई।’ उस कमसिन के साथ खड़ी थी राज की पुरानी आया। अगली सुबह वह रात मिले उपहार देख रहा था। एक है उस आया का नाचीज़ सा तोहफ़ा- केक जो बूढ़ी आया बनाया करती थी। वह अपने को रोक नहीँ पाता। मछुआरों की बस्ती में आया के घर पहुंच जाता है। दरवाज़े पर मिलती है वही लड़की, हाथ आटे से सने हैं। वह देखता रह जाता है...
अगर बॉबी को देखकर राज शायर बन गया था, तो बॉबी भी पीछे नहीँ है। कश्मीर के एक बंद कमरे में वह राज की आंखों की भूलभुलैया में खो जाती है, और शेर से सामना होने पर यह कहने की हिम्मत रखती है, “तुम्हें छोड़ दे मुझे खा जाए!”
उन दोनों की उम्र का यह ‘एक साल जो बचपन और जवानी के बीच है’ बड़ा बुरा है। इसमें वे कुछ भी कर सकते हैं, कुछ भी सकते हैं, और कहीँ भी भाग जा सकते हैं।
यह उत्कटता, उग्रता, प्रचंडता और अदम्यता ही‘बॉबी’ का कथ्य थी। अनेक घटनाओं से, उतार-चढ़ावों से भरी अंत तक दर्शक को बांधे रखने वाली प्रेम कहानी कोई राज कपूर ही फ़िल्मा सकता था। लेकिन कोई कितना ही सिद्धहस्त निर्देशक हो उसकी कल्पना को साकार करते हैं कलाकार ही। यह दायित्व निभाने में ऋषि और डिंपल की जोड़ी ने स्वयं राज कपूर की उम्मीदों से ऊपर बहुत कुछ कर दिखाया था।
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‘बॉबी’ के बाद यह जोड़ी बिछुड़ी तो बारह साल बाद मिलाईरमेश सिप्पी नेगोआ के ‘सागर’ तट पर, जहां छोटा सा रेस्तरां चलाने वाली मोना (डिंपल) बचपन के साथी राजा (कमल हासन) से हंसती खेलती रहती है। उद्योगपति परिवार के साथ अमरीका से आए रवि (ऋषि) ने मोना को देखा तो गा उठा –“चेहरा है या चांद खिला है, ज़ुल्फ़ घनेरी शाम है क्या, सागर जैसी आंखों वाली यह तो बता तेरा नाम है क्या।”
वही ‘बॉबी’ जैसी ताज़गी, वही भावनाओँ के सागर से भी गहरी गहराई, दोनों की आंखोँ में झलक रही थी। कहानी प्रेम त्रिकोण थी। राजा मन ही मन चाहता था मोना को, पर कह नहीं पाता था। उसने अपने मन का भेद खोला रवि से। रवि की दादी की विशाल संपत्ति को हथियाने का षड्यंत्र चल रहा है। क्लाईमैक्स में इंतिहाई मारपीट गोलीबारी होती है। मोना को बचाने में राजा मारा जाता है। इस के लिए हिंदी में फ़िल्मफ़ेअर का श्रेष्ठ नायक अवार्ड मिला कमल हासन को, उसे मिला एकमात्र हिंदी अवार्ड। ठीक वैसे जैसे श्रेष्ठ रोमांटिक हीरो का एकमात्र अवार्ड ऋषि को मिला था ‘बॉबी’ में। यूं श्रेष्ठ हीरो का एक और अवार्ड मिला ऋषि को ‘दो दुनी चार’ के लिए।
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इस बीच ऋषि चालीस फ़िल्म कर चुका था:जैसे\नरेंद्र बेदी की ‘रफ़ू चक्कर’, यश चोपड़ा की सुपर हिट ‘कभी कभी’, रवेल की ‘लैला मजनूं’, राज कपूर की ‘प्रेमरोग’, मनमोहन देसाई की ‘अमर अकबर एंथनी’, महेश भट्ट की ‘नया दौर’, राज खोसला की ‘दोप्रेमी’, सुभाष घई की ‘कर्ज़’, मनमोहन देसाई ‘नसीब’, मनमोहन देसाई की ही‘कुली’ और राज कपूर की ‘प्रेमरोग’।
इस बीच ऋषि चालीस फ़िल्म कर चुका था:जैसे\नरेंद्र बेदी की ‘रफ़ू चक्कर’, यश चोपड़ा की सुपर हिट ‘कभी कभी’, रवेल की ‘लैला मजनूं’, राज कपूर की ‘प्रेमरोग’, मनमोहन देसाई की ‘अमर अकबर एंथनी’, महेश भट्ट की ‘नया दौर’, राज खोसला की ‘दोप्रेमी’, सुभाष घई की ‘कर्ज़’, मनमोहन देसाई ‘नसीब’, मनमोहन देसाई की ही‘कुली’ और राज कपूर की ‘प्रेमरोग’।
यह पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों के प्रति दोहरे मानदंड की कहानी थी। नायिका थी बड़े राजा ठाकुर (शम्मी कपूर) परिवार की लाड़ली बेटी मनोरमा (पद्मिनी कोल्हापुरे) और नायक था गांव के पुजारी के घर पला अनाथ देवधर। दोनों बचपन से ही हिलते मिलते आ रहे थे। माध्यम थी पुजारी की बेटी राधा (किरण वैराले)। मनोरमा के बचपन का‘बुद्धू बाबा’ आठ साल बाद शहर से लौटा तो देवधर के मन में अनकहा प्रेम पनपने लगा। मनोरमा का ब्याह हुआ और जल्दी ही विधवा हो गई। ससुराल के अत्याचार सहती जेठ की हवस का शिकार बन कर पीहर आ गई। दोनों के बीच आता है समाज।
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ऋषि की तमाम फ़ार्मूला फ़िल्मों में अकबर एंथनी’ के अकबर इलाहाबादी की फ़िल्म की हीरोइनों (विनोद खन्ना – शबाना आज़मी), (अमिताभ बच्चन – परवीन बाबी), और (ऋषि कपूर – नीतु सिंह) वाली जोड़ियों में मुझे ऋषि – नीतू वाला अंश सबसे अच्छा लगा था और लगता है। उसमें जो ताज़गी है, खुलापन है, और ऋषि की जो माहिर क़व्वालों जैसी दिलफेंक अदा है, और साथ ही साथ नीतू का जो शरमाना और फ़िदा हो जाना है, वह यह क़व्वाली लिखते समय मजरूह सुल्तानपुरी भी सोच नहीँ पाए होंगे। क़व्वाली शुरू होती है एक बंदिश से ‘शबाब पर मैं ज़रा सी शराब फेंकूंगा/ किसी हसीं की तरफ़ यह गुलाब फेंकूंगा’ और ठेके के साथ शुरू होती है—
‘परदा है परदा, परदा है परदा, / ‘परदे के पीछे परदानशीं है / परदानशीं को बेपरदा न कर दूं / तो अकबर मेरा नाम नहीं है!’
बिमल रॉय की ‘मधुमती’ की तर्ज़ पर बनी थी सुभाष घई की ‘कर्ज़’ (1980)। ‘मधुमती’ में अगर उत्तर भारत के पर्वत थे तो ‘कर्ज़’ में था ऊटी और करनूल का सुंदर क्षेत्र। नायक रवि वर्मा (ऋषि) अपने मृत पिता के साझीदार सर जूडा (प्रेमनाथ) से जायदाद का मुक़दमा जीत कर मां को ख़ुशख़बरी दे कर बताता कि वह कामिनी (सिमी गरेवाल) से विवाह करेगा। पर सर जूडा के साथ षड्यंत्र के अंतर्गत कामिनी उसे मार कर काली देवी के मंदिर के पास पहाड़ से नीचे फेंक देती है।
बहुत साल बीत चुके हैं। इक्कीस साल के बिंदास गायक-नर्तक अनाथ मौंटी को वही धुन पसंद है जो कभी रवि को पसंद थी। कहीं ऊटी के आसपास ही रहती है मौंटी की चहेती टीना (टीना मुनीम)। वहाँ उसे बहुत कुछ जाना पहचाना सा, अध-भूला सा, अध-याद सा लगता है। मौंटी वास्तव मेँ फिर से जन्मा रवि ही है। बात परत दर परत खुलती जाती है। अंत तक की रोमांचक यात्रा में संगीतकार लक्ष्मी-प्यारे के दो गीत ‘दर्दे दिल’ और ‘ओम शांति ओम’ अभी तक याद किए जाते हैं। इसी थीम पर शाहरुख़ की फ़िल्म का नाम ही था ‘ओम शांति ओम’।
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सन् 2000 के बाद ऋषि ने रोमांटिक हीरो के रोल करना बंद कर दिया। लगभग 20 फ़िल्मों में जैसे 2006 की ‘फ़ना’, 2007 की ‘नमस्ते लंदन’, 2007 की ‘ओम शांति ओम’, 2009 की ‘दिल्ली छह’, और‘लक बाई चांस’ में कैरेक्टर रोल करने के बाद उसने की अ--रोमांटिक हीरो के रूप में एक बेहतरीन फ़िल्म दी सन 2010 की ‘दोदुनी चार’। दिल्ली के लाजपतनगर के डीडीए फ़्लैट में रहता हैटीचिंग शॉप में गणित पढ़ाने वाला निम्न आय वर्ग का मेहनती आदर्शवादी टीचर संतोष दुग्गल। घर में वह है, पत्नी कुसुम (नीतू जो तीस साल बाद फ़िल्म में आई है), बेटा है, बेटी है। पैसे जितने कम मिलते हैं, महंगाई उनसे दोगुनी बढ़ रही है। आय बढ़ाने का हर तरीक़ा नाकाम रहता है। ऐसे में मेरठ से एक नज़दीकी की बेटी की शादी का न्योता आता है। शर्त यह कि वे परिवार का सम्मान बचाने के लिए कार में आएं। महल्ले वालों से दावा करता है, “मैं हारने वाला नहीं हूँ, एक हफ़्ते में कार ला कर रहूँगा!” एक धनी नाकारा छात्र के नंबर बढ़वा देतो...! संघर्ष का बिंदु है मानव मूल्यों की रक्षा।
‘दो दुनी चार’ जैसी हास्य और समस्याओं का सुरुचिपूर्ण संगम फ़िल्म कोई कोई ही आती है।
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