'ये हाथ नहीं, फांसी का फंदा है' ... जैसे चंद डायलॉग्स सुनते ही जिस अभिनेता की शक़्ल जेहन में ताज़ा हो उठती है, उसका नाम है संजीव कुमार। अपनी बेहतरीन अदाकारी के लिए जाने जाने वाले संजीव का असली नाम हरिहर जरीवाला था, बाद में हरिभाई बन गया।
~ इस उम्दा कलाकार के बारे में आइए जानते हैं कुछ ख़ास बातें~
हरिभाई यानी संजीव कुमार का जन्म 9 जुलाई 1938 में मुंबई में हुआ था, लेकिन बचपन गुजरात में गुजरा। 6 नवंबर 1985 में दिल का दौरा पड़ा और वे 47 साल की उम्र में ही फानी दुनिया को अलविदा कह गए।
➡️डेब्यू
यूं तो संजीव ने पर्दे पर पर्दापण साल 1965 में किया, लेकिन अपनी कला को मांझने का कार्य, तो वे बपचप से ही शुरू कर चुके थे। सबसे पहले वे रंगमंच से जुड़े और अपना नाम बनाया। इसके बाद फिल्मालय के एक्टिंग स्कूल में दाखिला लेकर और बारीकियां सीखीं। इनकी पहली फिल्म 'निशान' थी। इसने संजीव को एक विशिष्ट स्थान दिलवाया।
यहां तक कि जब इनकी मृत्यु हुई, तब तक इन्होंने दस फिल्मों की शूटिंग तक पूरी कर ली थी। इनकी अखिरी फिल्म 'प्रोफ़ेसर की पड़ोसन' रही। यह फिल्म इनकी मृत्यु के आठ साल रिलीज़ हुई।
➡️जवानी में बुढ़ापा
संजीव खुद को हर तरह के किरदार में ढाल लेते थे। शायद यही वजह रही कि वे भीड़ से हरदम अलग ही नज़र आए। एक नाटक 'ऑल माई संस' में उन्होंने बुजुर्ग की भूमिका निभाई और जबरदस्त सराहना पाई।
यह सराहना इसलिए भी मिली क्योंकि महज बाईस साल की उम्र में ही बुजुर्ग बनें थे। इसके अलावा एक्शन, नायक, खलनायक, हास्य, रोमांस, हर तरह की भूमिका उन्होंने न सिर्फ़ निभाई, बल्कि तारीफ़े भी बटोरीं।
➡️फिल्म 9 भूमिकाएं
अभिनेता के तौर पर वे खुद को हमेशा आजमाते रहते थे। यहां तक कि एक फिल्म में उन्होंने 9 भूमिकाएं निभाई। 'नया दिन नई रात' में उन्होंने नौ अलग-अलग किरदार निभाए।
➡️राष्ट्रीय पुरस्कार
संजीव कुमार ने डेब्यू तो वर्ष 1965 में किया था, लेकिन छोटे-मोटे किरदार बड़े पर्दे पर वे पहले ही निभा चुके थे। वर्ष 1960 में आई फिल्म 'हम हिन्दूस्तानी' में वे महज दो मिनट की भूमिका में दिखे।
इसके बाद वर्ष 1962 में राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म 'आरती' के लिए स्क्रीन टेस्ट दिया, जिसमें वो सिलेक्ट नहीं हुए। इसके बाद वो बी-ग्रेड की फिल्में करते रहे हैं और आखिरकार अपनी मेहनत और लगन से सबका ध्यान अपनी ओर खींच ही लिया।
फिर वर्ष 1968 में प्रदर्शित फिल्म 'शिकार' में वह पुलिस ऑफिसर की भूमिका में दिखे। हालांकि, यह फिल्म धर्मेंद्र पर केंद्रित थी, फिर भी संजीव ने अपनी छाप छोड़ी और बेस्ट सपोर्टिंव एक्टर का फिल्मफेयर पुरस्कार भी प्राप्त किया।
उनके अभिनय की गाड़ी चलती रही और आखिरकार वर्ष 1970 में प्रदर्शित फिल्म 'खिलौना' ने उनके अभिनय के परचम को लहरा दिया। वहीं वर्ष 1970 में प्रदर्शित फिल्म 'दस्तक' के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा गया।
वर्ष 1972 में प्रदर्शित फिल्म 'कोशिश' में उनके अभिनय के एक नये आयाम को दर्शकों ने देखा। इस फिल्म में वे गूंगे की भूमिका में थे। बग़ैर संवाद बोले सिर्फ़ आंखों और चेहरे की भाव-भंगिमा से सबकुछ कह देने की प्रतिभा देख कर सब उनके मुरीद हो गए।
➡️गुलज़ार का साथ
गीतकार गुलज़ार, आरडी बर्मन और संजीव कुमार काफ़ी करीब थे। रोज़-ब-रोज़ का मिलना, गप्पे हांकना खूब दावते उड़ाना इनका प्यारा शगल था।
तभी तो गुलज़ार कहते हैं कि आरडी और संजीव के जाने के बाद आत्मा का एक हिस्सा मर गया है। गुलज़ार के साथ संजीव ने नौ फिल्में कीं, जिनमें 'आंधी', 'मौसम', 'अंगूर', 'नमकीन' प्रमुख हैं।
➡️प्रेम में असफल और अंधविश्वासी
संजीव कुमार ने शादी नहीं की, लेकिन प्रेम को कई बार महसूस किया। उनके इश्क़ के चर्चो से सभी वाकिफ हैं। यहां तक कि उन्होंने अभिनेत्री हेमा मालिनी को शादी का प्रस्ताव भी दिया था।
लेकिन हेमा ने धर्मेंद्र से शादी कर ली। लेकिन कम ही लोग यह बात जानते होंगे कि वे अंधविश्वासी भी थे। उन्हें यह अन्धविश्वास था की इनके परिवार में बड़े पुत्र के 10 वर्ष का होने पर पिता की मृत्यु हो जाती है।
इनके दादा, पिता और भाई सभी के साथ यह घटित हो चुका था। संजीव की भी मौत अपने दिवंगत भाई के बेटे को गोद लेने के दस वर्ष बाद हो गई थी। अपने शिष्ट व्यवहार और हंसमुख अंदाज़ से सबको अपना कायल बना लेते थे।
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