कविवर प्रदीप
कविवर प्रदीप
आज की शख्शियत हैं कविवर प्रदीप जो लखनऊ से जुड़े थे यही अपनी पढाई पूरी की। कविवर प्रदीप के नाम पर लखनऊ में कुछ भी नहीं है।
प्रदीप हिंदी साहित्य जगत और हिंदी फि़ल्म जगत के रचनाकार रहे। कवि प्रदीप ‘ऐ मेरे वतन के लोगों सरीखे देशभक्ति गीतों के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने 1962 के ‘भारत-चीन युद्ध के दौरान शहीद हुए सैनिकों की श्रद्धांजलि में ये गीत लिखा था।
लता मंगेशकर द्वारा गाए इस गीत का तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की उपस्थिति में 26 जनवरी 1963 को दिल्ली के रामलीला मैदान से सीधा प्रसारण किया गया था।
लता मंगेशकर द्वारा गाए इस गीत का तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की उपस्थिति में 26 जनवरी 1963 को दिल्ली के रामलीला मैदान से सीधा प्रसारण किया गया था।
6 फऱवरी, 1915 में सेंट्रल प्रोविंस अब मध्य प्रदेश में जन्मे प्रदीप का असल नाम रामचंद्र द्विवेदी था। किशोरावस्था में ही उन्हें लेखन और कविता का शौक़ लगा। कवि सम्मेलनों में वे ख़ूब दाद बटोरा करते थे। कविता तो आमतौर पर हर व्यक्ति जीवन में कभी न कभी करता ही है, परंतु रामचंद्र द्विवेदी की कविता केवल कुछ क्षणों का शौक़ या समय बिताने का साधन नहीं थी, वह उनकी सांस-सांस में बसी थी, उनका जीवन थी। इसीलिए अध्यापन छोड़कर वे कविता की सरंचना में व्यस्त हो गए। कवि सम्मेलनों में सूर्यकांत त्रिपाठी निरालाजी जैसे महान साहित्यिक को प्रभावित कर सकने की क्षमता थी रामचंद्र द्विवेदी में। उन्हीं के आशीर्वाद से रामचंद्र प्रदीप कहलाने लगे। उस जमाने में अभिनेता प्रदीप कुमार बहुत लोकप्रिय थे और अक्सर आम लोग प्रदीप कहे जाने वाले रामचंद्र द्विवेदी की जगह प्रदीप कुमार के बारे में सोचने-समझने लगते थे।
1939 में लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक तक की पढ़ाई करने के बाद कवि प्रदीप ने शिक्षक बनने का प्रयास किया, लेकिन इसी दौरान उन्हें बम्बई अब मुंबई में हो रहे एक कवि सम्मेलन में हिस्सा लेने का न्योता मिला। कवि सम्मेलन में उनके गीतों को सुनकर ‘बाम्बे टॉकीज स्टूडियो’ के मालिक हिंमाशु राय काफ़ी प्रभावित हुए और उन्होंने प्रदीप को अपने बैनर तले बन रही फ़िल्म ‘कंगन’ के गीत लिखने की पेशकश की। इस फ़िल्म में अशोक कुमार एवं देविका रानी ने प्रमुख भूमिकाएँ निभाई थीं। 1939 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘कंगन’ में उनके गीतों की कामयाबी के बाद प्रदीप बतौर गीतकार फ़िल्मी दुनिया में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। इस फ़िल्म के लिए लिखे गए चार गीतों में से प्रदीप ने तीन गीतों को अपना स्वर भी दिया था। इस प्रकार ‘कंगन’ फ़िल्म के द्वारा भारतीय हिंदी फ़िल्म उद्योग को गीतकार, संगीतकार एवं गायक के रूप में एक नयी प्रतिभा मिली। 1943 में मुंबई की ‘बॉम्बे टॉकीज’ की पांच फ़िल्मों- ‘अंजान’, ‘किस्मत’, ‘झूला’, ‘नया संसार’ और ‘पुनर्मिलन’ के लिये भी कवि प्रदीप ने गीत लिखे।
अंतत: पंडित रामचंद्र द्विवेदी ने अपना उपनाम कवि प्रदीप रख लिया, ताकि अभिनेता प्रदीप कुमार और गीतकार प्रदीप में अंतर आसानी से लोगों की समझ में आ जाए। कवि प्रदीप अपनी रचनाएं गाकर ही सुनाते थे और उनकी मधुर आवाज का सदुपयोग अनेक संगीत निर्देशकों ने अलग-अलग समय पर किया। पहली ही फि़ल्म में कवि प्रदीप को गीतकार के साथ-साथ गायक के रूप में भी लिया गया था, परंतु गायक के रूप में उनकी लोकप्रियता का माध्यम बना जागृति फि़ल्म का गीत जिसके बोल हैं – आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की संगीत निर्देशक हेमंत कुमार, सी. रामचंद्र, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल आदि ने समय-समय पर कवि प्रदीप के लिखे कुछ गीतों का उन्हीं की आवाज में रिकॉर्ड किया। पिंजरे के पंछी रे तेरा दर्द न जाने कोय,टूट गई है माला मोती बिखर गए, कोई लाख करे चतुराई करम का लेख मिटे न रे भाई, जैसा भावना प्रधान गीतों को बहुत आकर्षक अंदाज में गाकर कवि प्रदीप ने फि़ल्म जगत के गायकों में। अपना अलग ही महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया था, एक गीत यद्यपि कवि प्रदीप ने स्वयं गाया नहीं था, लेकिन उनकी लिखी इस रचना ने ब्रिटिश शासकों को हिला दिया था, जिसके बोल हैं- आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है। ब्रिटिश अधिकारी ढूंढऩे लगे कवि प्रदीप को। जब उनके कुछ मित्रों को पता चला कि ब्रिटिश शासक कवि प्रदीप को पकड़कर कड़ी सजा देना चाहते हैं तो उन्हें कवि प्रदीप की जान खतरे में नजर आने लगी। मित्रों और शुभचिंतकों के दबाव में कवि प्रदीप को भूमिगत हो जाना पड़ा।
आज़ादी के बाद 1954 में उन्होंने फि़ल्म ‘जागृति में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन दर्शन को बख़ूबी फि़ल्म के गानों में उतारा। इसे लेखनी का ही कमाल कहेंगे कि जब पाकिस्तान में फि़ल्म ‘जागृति की रीमेक बेदारी बनाई गई तो जो बस देश की जगह मुल्क कर दिया गया और पाकिस्तानी गीत बन गया….हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के, इस मुल्क़ को रखना मेरे बच्चों संभाल के..। कुछ इसी तरह ‘दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल की जगह पाकिस्तानी गाना बन गया….. यूँ दी हमें आज़ादी कि दुनिया हुई हैरान, ऐ क़ायदे आज़म तेरा एहसान है एहसान। ऐसे ही था बेदारी का ये पाकिस्तानी गाना….आओ बच्चे सैर कराएँ तुमको पाकिस्तान की, जिसकी खातिर हमने दी क़ुर्बानी लाखों जान की। ये गाना असल में था आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की…
1939 में लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक तक की पढ़ाई करने के बाद कवि प्रदीप ने शिक्षक बनने का प्रयास किया, लेकिन इसी दौरान उन्हें बम्बई अब मुंबई में हो रहे एक कवि सम्मेलन में हिस्सा लेने का न्योता मिला। कवि सम्मेलन में उनके गीतों को सुनकर ‘बाम्बे टॉकीज स्टूडियो’ के मालिक हिंमाशु राय काफ़ी प्रभावित हुए और उन्होंने प्रदीप को अपने बैनर तले बन रही फ़िल्म ‘कंगन’ के गीत लिखने की पेशकश की। इस फ़िल्म में अशोक कुमार एवं देविका रानी ने प्रमुख भूमिकाएँ निभाई थीं। 1939 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘कंगन’ में उनके गीतों की कामयाबी के बाद प्रदीप बतौर गीतकार फ़िल्मी दुनिया में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। इस फ़िल्म के लिए लिखे गए चार गीतों में से प्रदीप ने तीन गीतों को अपना स्वर भी दिया था। इस प्रकार ‘कंगन’ फ़िल्म के द्वारा भारतीय हिंदी फ़िल्म उद्योग को गीतकार, संगीतकार एवं गायक के रूप में एक नयी प्रतिभा मिली। 1943 में मुंबई की ‘बॉम्बे टॉकीज’ की पांच फ़िल्मों- ‘अंजान’, ‘किस्मत’, ‘झूला’, ‘नया संसार’ और ‘पुनर्मिलन’ के लिये भी कवि प्रदीप ने गीत लिखे।
अंतत: पंडित रामचंद्र द्विवेदी ने अपना उपनाम कवि प्रदीप रख लिया, ताकि अभिनेता प्रदीप कुमार और गीतकार प्रदीप में अंतर आसानी से लोगों की समझ में आ जाए। कवि प्रदीप अपनी रचनाएं गाकर ही सुनाते थे और उनकी मधुर आवाज का सदुपयोग अनेक संगीत निर्देशकों ने अलग-अलग समय पर किया। पहली ही फि़ल्म में कवि प्रदीप को गीतकार के साथ-साथ गायक के रूप में भी लिया गया था, परंतु गायक के रूप में उनकी लोकप्रियता का माध्यम बना जागृति फि़ल्म का गीत जिसके बोल हैं – आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की संगीत निर्देशक हेमंत कुमार, सी. रामचंद्र, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल आदि ने समय-समय पर कवि प्रदीप के लिखे कुछ गीतों का उन्हीं की आवाज में रिकॉर्ड किया। पिंजरे के पंछी रे तेरा दर्द न जाने कोय,टूट गई है माला मोती बिखर गए, कोई लाख करे चतुराई करम का लेख मिटे न रे भाई, जैसा भावना प्रधान गीतों को बहुत आकर्षक अंदाज में गाकर कवि प्रदीप ने फि़ल्म जगत के गायकों में। अपना अलग ही महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया था, एक गीत यद्यपि कवि प्रदीप ने स्वयं गाया नहीं था, लेकिन उनकी लिखी इस रचना ने ब्रिटिश शासकों को हिला दिया था, जिसके बोल हैं- आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है। ब्रिटिश अधिकारी ढूंढऩे लगे कवि प्रदीप को। जब उनके कुछ मित्रों को पता चला कि ब्रिटिश शासक कवि प्रदीप को पकड़कर कड़ी सजा देना चाहते हैं तो उन्हें कवि प्रदीप की जान खतरे में नजर आने लगी। मित्रों और शुभचिंतकों के दबाव में कवि प्रदीप को भूमिगत हो जाना पड़ा।
आज़ादी के बाद 1954 में उन्होंने फि़ल्म ‘जागृति में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन दर्शन को बख़ूबी फि़ल्म के गानों में उतारा। इसे लेखनी का ही कमाल कहेंगे कि जब पाकिस्तान में फि़ल्म ‘जागृति की रीमेक बेदारी बनाई गई तो जो बस देश की जगह मुल्क कर दिया गया और पाकिस्तानी गीत बन गया….हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के, इस मुल्क़ को रखना मेरे बच्चों संभाल के..। कुछ इसी तरह ‘दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल की जगह पाकिस्तानी गाना बन गया….. यूँ दी हमें आज़ादी कि दुनिया हुई हैरान, ऐ क़ायदे आज़म तेरा एहसान है एहसान। ऐसे ही था बेदारी का ये पाकिस्तानी गाना….आओ बच्चे सैर कराएँ तुमको पाकिस्तान की, जिसकी खातिर हमने दी क़ुर्बानी लाखों जान की। ये गाना असल में था आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की…
ऐ मेरे वतन के लोगो साबरमती के संत (जाग्रति) हम लाये हैं तूफ़ान से (जाग्रति) आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ (जाग्रति) चल अकेला चल अकेला (संबंध) चल चल रे नौजवान (बंधन) चने जोर गरम बाबू (बंधन) दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है (किस्मत) कितना बदल गया इंसान (नास्तिक) चलो चलें माँ (जाग्रति) तेरे द्वार खड़ा भगवान (वामन अवतार) दूसरों का दुखड़ा दूर करने वाले (दशहरा) पिंजरे के पंछी रे (नागमणि) कोई लाख करे चतुराई (चंडी पूजा) इंसान का इंसान से हो भाईचारा (पैग़ाम) ओ दिलदार बोलो एक बार (स्कूल मास्टर) हाय रे संजोग क्या घडी दिखलाई (कभी धूप कभी छाँव) चल मुसाफिर चल (कभी धूप कभी छाँव) मारने वाला है भगवन बचाने वाला है भगवन (हरिदर्शन) मैं तो आरती उतारूँ (जय संतोषी माँ) यहाँ वहां जहाँ तहां (जय संतोषी माँ) फि़ल्मों में उनके अमूल्य योगदान के लिए उन्हें 1998 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार भी दिया गया। उनका हर फि़ल्मी-ग़ैर फि़ल्मी गीत अर्थपूर्ण होता था और जीवन को कोई न कोई दर्शन समझा जाता था। 11 दिसंबर 1998 को सबको अकेला छोड़ कवि प्रदीप अनंत यात्रा पर निकल गए।
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